पितृसत्ता का प्रभाव देश के ज़्यादातर नागरिकों पर ही नहीं, बल्कि सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका जैसे संस्थान भी इसके असर से बचे हुए नहीं हैं, जिन पर लैंगिक न्याय स्थापित कराने का दायित्व है।
पितृसत्ता का प्रभाव देश के ज़्यादातर नागरिकों पर ही नहीं, बल्कि सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका जैसे संस्थान भी इसके असर से बचे हुए नहीं हैं, जिन पर लैंगिक न्याय स्थापित कराने का दायित्व है।
देश के अलग-अलग न्यायालयों में ऐसे अजीबोगरीब और आपत्तिजनक फैसले सुनाए गए जो महिलाओं के आज़ादी, सुरक्षा, और गरिमा पर चोट करते हैं।
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पुरुषों को अपने विशेषाधिकारों को त्यागने और एक समान समाज की रचना में अपनी भूमिका निभाने की आवश्यकता है। साथ ही लोकतांत्रिक स्तंभों को पक्षपाती, दकियानूसी, रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक होने से बचना अनिवार्य है।
देश के मुख्य न्यायधीश ने स्वयं कहा है कि अदालत को पितृ सत्तात्मक सोच को त्याग देना चाहिए। क्या है मुख्य न्यायधीश के बयान के मायने ?
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क्या होगा अदालतों पर असर?
बहुजन संवाद में आज 25 मार्च, शाम 6 बजे चर्चा इन्हीं विषयों पर होगी । चर्चा में शामिल रहेंगे –
◆ प्रो. अनिता शर्मा, सहायक प्राध्यापक (रिटा.), सामाजिक कार्यकर्ता
◆ सीमा हिंगोनिया, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक, राजस्थान पुलिस अकादमी, जयपुर
◆ सुमित्रा चोपड़ा, राज्य संरक्षक, अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति, राजस्थान
◆ डॉ सुमन मौर्य, राजनीति विज्ञान, राजस्थान विश्वविद्यालय
◆ एड नितिन उपाध्याय, लीगल एडवोकेट, नगर निगम,
छिन्दवाड़ा
◆ डॉ आनन्द प्रकाश तिवारी, समाजवादी विचारक, वाराणसी
🎤 संचालन- एड आराधना भार्गव
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